Saturday, September 22, 2012

बाउंड्री के उस पार

" मैं", बाउंड्री के उस पार रहता हूँ.
अचंभित! समझ के पड़े था यह पता.
मैला-कुचला कपड़ा, बेबस निगाहें.
हाथ में झाड़ू, और यह रुखा सा जबाव
समझ के बिलकुल पड़े.
"हा साहबजी, हम लोग बाउंड्री के उस पार रहते हैं. "
फिर अचम्भा! यह कौनसी बाउंड्री?
"साहबजी हमलोग बाउंड्री के बाहर ही रहते आये हैं."
"आपको पता नहीं."
"साहबजी यह किसी को पता नहीं"
"पता क्यूँ करें, क्यूँ पड़ेसानी मोल ले."
"साहबजी, पर  एक बात हैं, आज के बाउंड्री और तब के बाउंड्री में थोड़ा अंतर हैं."
"पहले दिलों में बाउंड्री थी, गॉव कस्बों के हासियें पर रहा करता था. पर  था गॉव का ही."
और अब?
"दिलों में भी बाउंड्री हैं. और जमीन पर मोटी दीवारों की. और मैं कहीं का  नहीं."
अचम्भा, जितना जबाव दो, उतना ही समझ से पड़े.
भाई जान, मैं ठहरा सीधा सादा, दुनिया से बेखबर.
घुमाओ मत, जरा सीधी बात बताओ.
"सुन सकोगे बाउंड्री की कहानी, तो सुनो.
"बाउंड्री भारत को बाँटती हैं.
जाती के आधार पर नहीं, धर्म के आधार पर नहीं, और न ही राजनीती पे. 
बाउंड्री बांटती है, काम के आधार पर.
बाउंड्री के उस पार दिमाग लगाते, कलम चलाते.
बाउंड्री के इस पार, झाड़ू लगाते, शरीर खपाते.
उस पार  ! पक्के, सजे  कतारों में बने घर.
 इस पार ! टूटे-फूटे टीनों की चारदीवार, इधर उधर बिखरे हुए.
उस पार ! बाग़ बगीचा, कृत्रिम झरने और मनभावन पार्क
इस पार ! जंगल झाड़ झुड़मुट, और कीचड़ की परात
उस पार ! झील हैं, तालाब हैं, जहाँ खुसबू बिखरी फूलों की
इस पार ! गदीला तालाब, जहाँ बदबू फैली मैलों की.
उस पर ! कॉन्वेंट स्कूल हैं, अच्छे शिक्षक हैं, बच्चे पढ़ते कलरव करते हैं.
इस पार ! स्कूल का पता नहीं, जो भी था उजड़ गया, बच्चो का भविष्य थम गया.
उस पार ! शौपिंग सेंटर, सब दिन मेले लगते हैं.
इस पार ! दीवारों से टंगी एक छोटी सी दुकान.
उस पार ! क्लब हैं, सितारा होटल हैं, शैम्पेन  की बोतलें टनटनाती  हैं.
इस पार ! देसी दारू की भट्टी हैं, पी के धुत्त मस्ताने हैं
उस पार ! मंदीर मस्जिद और गिरिजाघर हैं.
इस पार ! बेचारों के भगवान् का अता पता नहीं."
मन बिचलित होने लगा.
करूणा, दया उमड़ने लगी.
बस खुद को लाचार बेबस पाया
अब बस करो भाई, अब और सुन न पाउँगा.
महात्मा गाँधी के सपनों के भारत को बँटते देख न पाउँगा
अब मैं चलता हूँ, ईश्वर से आपके भले की कामना करता हूँ.
"रुक जाओं भाई, मेरी विनती सुनते जाओ.
नयी कविता रची हैं, इसे पूरा सुनते जाओ."
मैं तेजी से भागा, पर वह माना नहीं.
कवी की वेदना! चिल्ला चिल्ला कर सुना रहा था
"उस पार ! बिजली हैं, चकमक हैं, बिजली दिल्ली को जाती हैं.
इस पार ! घोर अँधेरा हैं, कोलाहल हैं, डिबिया की टिमटिमाती लौ  के लिए कटोरी भर तेल कहा से लौऊँ .
 

2 comments:

रेवा स्मृति (Rewa) said...

Heart Touching Shanta. Nice one! Kisne likha hai? Is it written by you?

Shanta Kumar said...

ek kosis maine bhi ki! man ke bhavo ko khul ke kahne ki.