Saturday, December 29, 2012

शेर की दहाड़ हो अपनी संवेदना

"तारीख पे तारीख, तारीख पे तारीख,
जज साहब यहाँ मिलता है तारीख और फिर तारीख
लेकिन मिलता नहीं इंसाफ "

दामिनी अपने सगे संबंधियों के विरुद्ध अपनी नौकरानी के सामूहिक बलात्कार के इंसाफ के लिए अपनी जान  की बाजी  लगाकर लड़ाई लडती हैं। न जाने इस तरह कितनी  मासूम महिलाएं नित प्रतिदिन इंसान रूपी  भेड़ीयो के दरिंदगी का शिकार होती हैं। यदा कद किसी को ऐसी दामिनी मिल जाती हैं और  न्याय भी। लेकिन इस बार दामिनी खुद इस दरिंदगी का शिकार बन गई। भारतवर्ष की राजधानी में ऐसी दरिंदगी,  बहसीपन से पूरा देश शर्मसार हुआ। यही शर्म और शायद एक अनजाना डर ने लोगो को, युवाओं को समाज के सभी वर्ग को झकझोर कर रख दिया। काफी विरोध हुआ। आन्दोलन हुए। सरकार भी जनसैलाव के सामने झुकी और कड़े कदम उठाने के वादे किये। 

जीवन संघर्ष से जूझ रही दामिनी आखिर इस लोक को छोड़ चली गयी। पूरा देश उसके जाने के गम में शोकग्रस्त हो गया। रिहंदवासियों ने भी मोमबत्ती जलाकर अपनी संवेदना व्यक्त किया। मैंने भी इसमें शामिल होकर इस सामूहिक चेतना का भागी बना। लेकिन मेरे भीतर में विचार उमड़ने लगे। क्या संवेदना व्यक्त करना महज एक  कार्यक्रम हैं? और क्या यह हमें सोचने पर मजबूर करेगा परिवर्तन के लिए? परिवर्तन कैसा ? आन्दोलन कर कानून में परिवर्तन लाकर। क्या संविधान में नए कानून लाने  मात्र से यह समस्या दूर हो जाएगी? सविंधान देश की आत्मा होती हैं। लेकिन एक व्यक्ति का, एक परिवार का, एक समाज का, एक  संस्था का भी तो संविधान होता हैं। क्या इन सभी स्तरों  के संविधान में परिवर्तन लाने की आवश्यकता नहीं हैं? यदि यह संवेदना इस दिशा में सोचने के लिए मजबूर करें, तो यह संवेदना, एक प्रतीतात्मक प्रदर्शन एक व्यापक परिवर्तन लाने में कारगर साबित होगा। 

देश में परिवर्तन तो हुआ हैं। पहली बार हम सबने एक स्त्री को सम्मान दिया जिसकी अस्मिता को नष्ट कर दिया गया। नहीं तो इस देश में ऐसी स्त्रियों को घृणा की दृष्टि  से देखा जाता रहा है, समाज से निकाल दिया जाता था। ऐसी दुखियारी या तो फांसी लगा लेती और फिर जीवन नैया को ढ़ोने के लिए वैश्यावृति के दलदल में फंस जाती रही हैं। दामिनी की व्यथा ने  देश की सोच में बदलाव लाने  का बड़ा काम किया हैं। 

अपने व्यक्तिगत जीवन किस तरह से परिवर्तन लाना चाहिए, इस पर भी सोचने की आवश्यकता हैं। व्यक्तिगत तौर पर हमें अपनी सोच को विस्तार देना पड़ेगा। अपने परिवार के अलावा समाज का भी विचार भी करना चाहिए। समाज के सभी वर वर्गों के साथ मिलकर उसके आर्थिक सामाजिक, जीवन मूल्यों इत्यादि के विकास में योगदान करना चाहिए। रिहंद वासियों को बांडरी के बाहर जाकर लोगों के साथ समरसता होना चाहिए। रिहंद परिसर के भीतर व बाहर के बच्चों के साथ मिलकर उसे मार्ग से भटकने से रोकने का प्रयास करना चाहिए। जितने भी सामाजिक कार्य हो रहे हैं सभी में मन से, तन से, धन से एवं समय से अपनी अपनी क्षमता के अनुरूप योगदान देना चाहिए। 

एनटीपीसी परिवार, एक संस्था के तौर पर भी हमें अपने आसपास के विकास के लिए उचित कदम उठाने चाहिए। आस पास के बच्चों के अच्छी शिक्षा के लिए एक अच्छे विद्यालय का निर्माण होना चाहिए। दूर दराज के  छात्रो के लिए छात्रावास की व्यवस्था होनी चाहिए। सफाईकर्मी  के लिए उचित आवास व उनके सभी लड़कियों के लिए अच्छे विद्यालय में निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। परिसर के पड़ोस में वैश्यावृत्ति जैसी घटनाएँ भी प्रकाश मे आयी हैं। उनके भी भोजन  पानी की व्यवस्था कर समाज के साथ जोड़ने का प्रयास करना चाहिए। एक महाविद्यालय का निर्माण के लिए कदम उठाने चाहिए ताकि हजारो छात्र अपनी आगे की शिक्षा पूरी कर सकें। मजदूरों को सम्मान व अच्छा जीवन जीने के तौर तरीके सिखाने के लिए वर्कशॉप करने चाहिए। स्वरोजगार, जनचेतना इत्यादि की दिशा में काम कर हम बिजली उत्पादन के साथ साथ एक  समाज का निर्माण कर सकते हैं। तभी अपनी संवेदना स्पंदनहीन न होकर, एक युग परिवर्तनकारी साबित होगा। 

संवेदना, संवेदना और केवल संवेदना। 
संवेदना मेमनों के आंसू  बनकर न रहे।

शेर की दहाड़ हो अपनी संवेदना। 
युग परिवर्तनकारी कारी हो अपनी नव चेतना।  
  

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